आज से शुरू हो गई भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा

सेंट्रल डेस्क

आज पुरी (ओडिशा) में महाप्रभु जगन्नाथ रथयात्रा की शुरूआत हुई। यह 8 जुलाई तक चलेगी। पंचांग के अनुसार, 27 जून को सुबह 5:25 से 7:22 बजे तक सर्वार्थ सिद्धि योग और अभिजीत मुहूर्त में यात्रा शुरु हुई। यह यात्रा 12 दिनों तक चलती है, जिसमें सात दिन गुंडीचा मंदिर में विश्राम और फिर बहुदा यात्रा (वापसी यात्रा) शामिल होती है। वापसी के दौरान रथ मौसी मां मंदिर में रुकते हैं, जहां भगवान को पोडा पिठा (एक विशेष ओडिया मिठाई) का भोग लगाया जाता है।


जगन्नाथ रथयात्रा आस्था, संस्कृति और सामाजिक समरसता का प्रतीक है। यह उत्सव भगवान जगन्नाथ की कृपा और उनके भक्तों के प्रेम को दर्शाता है। पुरी की सड़कों पर रथों की भव्यता, भक्तों का उत्साह, ढोल-नगाड़ों की गूंज इस पर्व को दिव्य और भव्य बनाती है।
हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को ओडिशा के पुरी शहर में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का भव्य आयोजन होता है। यह विश्व प्रसिद्ध उत्सव हिंदू धर्म के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक, पुरी के जगन्नाथ मंदिर की पहचान है। यह आस्था, एकता और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक भी है। लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से इस रथयात्रा में शामिल होने और भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के दर्शन करने पहुंचते हैं।

ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व

जगन्नाथ रथयात्रा को विश्व का सबसे प्राचीन और विशाल रथ उत्सव माना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस यात्रा की शुरुआत तब हुई जब भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने पुरी नगर का भ्रमण करने की इच्छा व्यक्त की। भगवान जगन्नाथ ने अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण किया और अपनी मौसी के घर, गुंडीचा मंदिर, में सात दिनों तक विश्राम किया। तभी से यह परंपरा हर साल निभाई जाती है।

एक अन्य कथा के अनुसार, राजा इंद्रद्युम्न ने भगवान विष्णु की मूर्ति निर्माण के लिए विश्वकर्मा को नियुक्त किया था। विश्वकर्मा ने शर्त रखी कि मूर्तियां बनने तक कोई कक्ष में प्रवेश नहीं करेगा। लेकिन रानी गुंडीचा की जिज्ञासा के कारण दरवाजा खोल दिया गया, जिससे मूर्तियां अधूरी रह गईं। आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी अधूरे रूप में पूजे जाना चाहते हैं। तब से जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अधूरी मूर्तियां पुरी के मंदिर में स्थापित हैं, और रथयात्रा उनकी जन्मभूमि की स्मृति में निकाली जाती है।
स्कंद पुराण में उल्लेख है कि रथयात्रा में शामिल होने और भगवान के नाम का कीर्तन करने से भक्तों को पुनर्जन्म से मुक्ति और मोक्ष मिलता है। रथयात्रा का आयोजन पुरी के जगन्नाथ मंदिर से शुरू होकर लगभग तीन किलोमीटर दूर गुंडीचा मंदिर तक होता है। इस यात्रा में तीन विशाल रथों का निर्माण किया जाता है, जो नीम की लकड़ी से बने होते हैं और बिना कील या कांटे के तैयार किए जाते हैं। तीनों रथ की अपनी विशेषताएं हैं-

नंदीघोष (जगन्नाथ का रथ): यह रथ 45.6 फीट ऊंचा है, जिसमें 16 पहिए होते हैं। इसका रंग लाल और पीला है, और इसे शंखचूड़ रस्सी से खींचा जाता है।
तालध्वज (बलभद्र का रथ): 45 फीट ऊंचा यह रथ लाल और हरे रंग का है, जिसमें 14 पहिए होते हैं।
दर्पदलन (सुभद्रा का रथ): 44.6 फीट ऊंचा यह रथ काला या नीला और लाल रंग का है, जिसमें 12 पहिए होते हैं।
रथयात्रा से पहले एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान ‘छेरा पहरा’ होता है। इसमें पुरी के गजपति राजा स्वयं झाड़ू लेकर रथों के सामने मार्ग को साफ करते हैं। यह परंपरा बताती है कि भगवान जगन्नाथ के सामने सभी समान हैं, चाहे वह राजा हो या सामान्य भक्त।

धार्मिक और सामाजिक महत्व
जगन्नाथ रथयात्रा का धार्मिक महत्व असीम है। मान्यता है कि इस यात्रा में रथ खींचने से हजार यज्ञों के समान पुण्य प्राप्त होता है। भगवान जगन्नाथ, जो भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण का संयुक्त रूप माने जाते हैं। इस यात्रा के माध्यम से अपने भक्तों के बीच आते हैं। उनके सुख-दुख में सहभागी बनते हैं। उनकी उदारता का प्रतीक है, उनका कथन, ‘सब मनिसा मोर परजा’ (सभी मनुष्य मेरी प्रजा हैं)।
यह यात्रा सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। इसमें जाति, धर्म, और वर्ग की सीमाएं टूट जाती हैं, क्योंकि सभी भक्त एक साथ रथ खींचते हैं।

रथयात्रा से जुड़ी रोचक बातें

• भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी हैं, जिनमें हाथ, पैर, और पंजे नहीं हैं। यह उनकी दिव्यता और रहस्यमयता का प्रतीक है।
• हर 12-19 वर्ष में मूर्तियों को नई मूर्तियों से बदला जाता है, जिसमें पुरानी मूर्तियों का ‘ब्रह्म पदार्थ’ नई मूर्तियों में स्थानांतरित किया जाता है। यह प्रक्रिया गुप्त और पवित्र होती है।
• पौराणिक कथा के अनुसार, रथयात्रा के पंचमी तिथि पर देवी लक्ष्मी भगवान जगन्नाथ को ढूंढने गुंडीचा मंदिर आती हैं। द्वार बंद होने पर वे रथ का पहिया तोड़ देती हैं और नाराज होकर अपने मंदिर लौट जाती हैं। बाद में भगवान उन्हें मनाने जाते हैं।
जय जगन्नाथ!

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